गजलें और शायरी >> नदी की चीख नदी की चीखसुल्तान अहमद
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प्रस्तुत है सुल्तान अहमद की श्रेष्ठतम गजलें...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
खामोशियों में बन्द ज्वालामुखी (1986) के बाद नदी की चीख सुल्तान अहमद की
गजलों का दूसरा संग्रह है। इस बीच हंस, पहल, शेष, परिवेश, कथादेश,
दस्तावेज, उद्भावना, नया पथ, आजकल उन्नयन तथा अन्य महात्वपूर्ण पत्रिकाओं
में उनकी गजलें प्रकाशित और चर्चित होती रही हैं।
‘ दुष्यन्तकुमार ने इस लोक विद्या को जहाँ छोड़ा था आज वह वहाँ से काफी आगे ही नहीं निकल आयी, बल्कि उसने कई मंजिले तय कर ली हैं। फिर भी उसकी शास्त्रीयता व भाषा को लेकर विवाद थमा नहीं है और हिन्दी में उसकी रचना का कोई मानक तय नहीं हो पाया है। सुल्तान अहमद ने ग़ज़ल लेखन के साथ इस वाद-विवाद में भी गम्भीरतापूर्वक तर्कपूर्ण शिरकत की है। लोगों की सहमति असहमति की फिक्र के साथ।’
‘ दुष्यन्तकुमार ने इस लोक विद्या को जहाँ छोड़ा था आज वह वहाँ से काफी आगे ही नहीं निकल आयी, बल्कि उसने कई मंजिले तय कर ली हैं। फिर भी उसकी शास्त्रीयता व भाषा को लेकर विवाद थमा नहीं है और हिन्दी में उसकी रचना का कोई मानक तय नहीं हो पाया है। सुल्तान अहमद ने ग़ज़ल लेखन के साथ इस वाद-विवाद में भी गम्भीरतापूर्वक तर्कपूर्ण शिरकत की है। लोगों की सहमति असहमति की फिक्र के साथ।’
- प्रशस्ति-पत्र, परिवेश सम्मान, 1996
‘ऐसे समय में जब हर चीज़ के अन्त की घोषणा की जा रही हो, संचार
माध्यमों और सूचनात्मक क्रान्ति का आतंक पैदा किया जा रहा हो, सुल्तान
अहमद अपनी ग़ज़लों में कई ऊर्जा और रचनात्मकता के साथ अपने सरोकारों को
अभिव्यक्त करते हैं।...पूरी वैचारिक शक्ति और व्यापकता के साथ वे आदमी के
दुखों की ग़ज़लें कहते हैं।’
हरियश राय, परिवेश-28,पृ.59
‘फि़क्रोफ़न खूबियों से भरपूर इनकी ग़ज़लें मौजूदा
जिंदगी और हालात की सही अक्कासी करती हैं।’
-छपते-छपते, दीपावली विशेषांक 1999, पृ. 235‘
उनकी ग़ज़लें पाठकों में उत्साह और आशा का संचार करती हैं। गजलों का तेवर
अन्य कलाकारों से भिन्न है। वे ‘मानी’ के ग़ज़लाकार
हैं, नाजुक बयानियों के नहीं।
वही, पृ. 199
1
रास्ते जब नए बनाओगे
कुछ तो काँटे ज़रूर पाओगे।
आ गए जो शहर के धोखे में,
रास्ता घर का भूल जाओगे।
हाथ अँधेरा ज़रूर कुचलेगा,
जब भी कोई दीया जलाओगे।
आस्माँ चोट क्यों न पहुँचाए,
इस क़दर सर अगर उठाओगे।
तुमको सच बोलने की आदत है,
कैसे हर एक से निभाओगे ?
उनसे कह दो कि हम हैं ख़ुद मिट्टी,
हमको मिट्टी में क्या मिलाओगे ?
आ गए जो शहर के धोखे में,
रास्ता घर का भूल जाओगे।
हाथ अँधेरा ज़रूर कुचलेगा,
जब भी कोई दीया जलाओगे।
आस्माँ चोट क्यों न पहुँचाए,
इस क़दर सर अगर उठाओगे।
तुमको सच बोलने की आदत है,
कैसे हर एक से निभाओगे ?
उनसे कह दो कि हम हैं ख़ुद मिट्टी,
हमको मिट्टी में क्या मिलाओगे ?
2
नज़र ये किसकी लगी ज़र्द हो गए पत्ते,
अभी-अभी तो दरख़्तों पे थे हरे पत्ते।
कहाँ-कहाँ न भटकते हुए मिले पत्ते,
दरख़्त से जो कभी टूटकर गिरे पत्ते।
किसे था वक़्त कि सुनता, सभी थे जल्दी में,
सुना रहे थे कहानी झरे हुए पत्ते।
फिरी है ऐसी मुनादी सज़ा मिलेगी उन्हें,
जो बनके साज़ कभी भी यहाँ बजे पत्ते।
ख़बर चमन में उड़ी बाग़बान आएगा,
न जाने सुनके ये क्यों काँपने लगे पत्ते !
हवा कुछ ऐसी चली है कि ख़ौफ़ तारी है,
मगर रहेंगे कहाँ तक डरे-डरे पत्ते ?
बहुत दिनों से हैं पेड़ों की डालियाँ नंगी,
सँवार देंगे उन्हें आके कल नए पत्ते।
अभी-अभी तो दरख़्तों पे थे हरे पत्ते।
कहाँ-कहाँ न भटकते हुए मिले पत्ते,
दरख़्त से जो कभी टूटकर गिरे पत्ते।
किसे था वक़्त कि सुनता, सभी थे जल्दी में,
सुना रहे थे कहानी झरे हुए पत्ते।
फिरी है ऐसी मुनादी सज़ा मिलेगी उन्हें,
जो बनके साज़ कभी भी यहाँ बजे पत्ते।
ख़बर चमन में उड़ी बाग़बान आएगा,
न जाने सुनके ये क्यों काँपने लगे पत्ते !
हवा कुछ ऐसी चली है कि ख़ौफ़ तारी है,
मगर रहेंगे कहाँ तक डरे-डरे पत्ते ?
बहुत दिनों से हैं पेड़ों की डालियाँ नंगी,
सँवार देंगे उन्हें आके कल नए पत्ते।
3
दरख़्त बोले, ख़िज़ा है कब से ? कभी चमन में फ़ज़ा भी आए।
अगर चली है हवा फ़ज़ा की, कोई तो पत्ता हरा भी आए।
उजाड़ चेहरे, उदास गलियाँ, ये सहमीं सड़कें, खिंची हवाएँ,
लरज़ उठे हैं तमाम बस्ती कोई जो मद्धिम सदा भी आए।
बहस लुटेरों की हरकतों पर छिड़ी हुई है न जाने कब से,
लुटे घरों को ये फ़िक्र है अब बहस का कुछ फ़ैसला भी आए।
सभी से ऊँचा, सभी से बढ़कर मकाँ बनाना तो देख लेना,
कहीं बचा है वो कोना जिसमें कोई तुम्हारे सिवा भी आए।
उमस, अँधेरा, घुटन, उदासी, ये बन्द कमरों की ख़ूबियाँ हैं,
खुली रखे गर ये खिड़कियाँ तो कहीं से ताज़ा हवा भी आए।
अगर चली है हवा फ़ज़ा की, कोई तो पत्ता हरा भी आए।
उजाड़ चेहरे, उदास गलियाँ, ये सहमीं सड़कें, खिंची हवाएँ,
लरज़ उठे हैं तमाम बस्ती कोई जो मद्धिम सदा भी आए।
बहस लुटेरों की हरकतों पर छिड़ी हुई है न जाने कब से,
लुटे घरों को ये फ़िक्र है अब बहस का कुछ फ़ैसला भी आए।
सभी से ऊँचा, सभी से बढ़कर मकाँ बनाना तो देख लेना,
कहीं बचा है वो कोना जिसमें कोई तुम्हारे सिवा भी आए।
उमस, अँधेरा, घुटन, उदासी, ये बन्द कमरों की ख़ूबियाँ हैं,
खुली रखे गर ये खिड़कियाँ तो कहीं से ताज़ा हवा भी आए।
4
जाने कब होगा ये धुआँ ग़ायब,
जिसमें लगता है आस्माँ ग़ायब।
दाना लेने उड़े परिंदे कुछ,
आके देखा तो आशियाँ ग़ायब।
हैं सलामत अभी भी दीवारें,
उनके लेकिन हैं सायबाँ ग़ायब।
कैसे जंगल बनाए शहरों में,
हो गए जिसमें कारवाँ ग़ायब।
इस क़दर शोर है यहाँ बरपा,
हो न जाए सही बयाँ ग़ायब।
डरके तन्हाइयों से सोचोगे,
लोग रहने लगे कहाँ ग़ायब।
प्यार गर प्यार है तो उभरेगा,
लाख उसके करो निशाँ ग़ायब।
जिसमें लगता है आस्माँ ग़ायब।
दाना लेने उड़े परिंदे कुछ,
आके देखा तो आशियाँ ग़ायब।
हैं सलामत अभी भी दीवारें,
उनके लेकिन हैं सायबाँ ग़ायब।
कैसे जंगल बनाए शहरों में,
हो गए जिसमें कारवाँ ग़ायब।
इस क़दर शोर है यहाँ बरपा,
हो न जाए सही बयाँ ग़ायब।
डरके तन्हाइयों से सोचोगे,
लोग रहने लगे कहाँ ग़ायब।
प्यार गर प्यार है तो उभरेगा,
लाख उसके करो निशाँ ग़ायब।
5
इनको हम लेके भटकते हैं सिरों पर अपने,
कितने बेजोड़ हैं क़िस्मत में लिखे घर अपने ?
कल जो बदला भी ये मौसम तो भला क्या होगा,
सोख लेंगे जो लहू दिल में छुपे डर अपने।
कल जो कहते थे बादल देंगे रविश आँधी की,
आज घुटनों में छुपाए हैं वही सर अपने।
क्या ही तुम होगे पशेमाँ, जिन्हें कल ग़ैर कहा,
गर वही लोग लगे तुमको बिछुड़कर अपने।
लाख भटकोगे मगर राह पे आ जाओगे,
छोड़कर उनको बनो ख़ुद कभी रहबर अपने।
इस धुएँ में भी कहा आँख से, देखो सपना,
होगी इक रोज़ ज़मीं अपनी समंदर अपने।
कितने बेजोड़ हैं क़िस्मत में लिखे घर अपने ?
कल जो बदला भी ये मौसम तो भला क्या होगा,
सोख लेंगे जो लहू दिल में छुपे डर अपने।
कल जो कहते थे बादल देंगे रविश आँधी की,
आज घुटनों में छुपाए हैं वही सर अपने।
क्या ही तुम होगे पशेमाँ, जिन्हें कल ग़ैर कहा,
गर वही लोग लगे तुमको बिछुड़कर अपने।
लाख भटकोगे मगर राह पे आ जाओगे,
छोड़कर उनको बनो ख़ुद कभी रहबर अपने।
इस धुएँ में भी कहा आँख से, देखो सपना,
होगी इक रोज़ ज़मीं अपनी समंदर अपने।
6
दलदलों की क्यों नमी जाती नहीं ?
आँच जो उन तक कभी जाती नहीं।
चाँद पूनम का निकलता है मगर,
कुछ घरों तक चाँदनी जाती नहीं।
रौशनी के नामलेवा हैं बहुत,
पर जहाँ की तीरगी जाती नहीं।
जिस तरफ़ जलते हुए सहरा मिलें,
उस तरफ़ कोई नदी जाती नहीं।
जाने क्या-क्या गुल खिलाकर जाएगी ?
अधमरी-सी ये सदी जाती नहीं।
उनके दुःख को शोर से झुठला दिया,
जिनकी आँखों की नमी जाती नहीं।
दर्द ही बनकर भले दिल में रहे,
मिल गई जो रौशनी जाती नहीं।
आँच जो उन तक कभी जाती नहीं।
चाँद पूनम का निकलता है मगर,
कुछ घरों तक चाँदनी जाती नहीं।
रौशनी के नामलेवा हैं बहुत,
पर जहाँ की तीरगी जाती नहीं।
जिस तरफ़ जलते हुए सहरा मिलें,
उस तरफ़ कोई नदी जाती नहीं।
जाने क्या-क्या गुल खिलाकर जाएगी ?
अधमरी-सी ये सदी जाती नहीं।
उनके दुःख को शोर से झुठला दिया,
जिनकी आँखों की नमी जाती नहीं।
दर्द ही बनकर भले दिल में रहे,
मिल गई जो रौशनी जाती नहीं।
7
बन के ज़लज़ला मेरा घर मिटा दिया तुमने,
दिल से ज़िंदगी भर का डर मिटा दिया तुमने।
उठके इस ज़मीं से वो आस्माँ से टकराता,
तुमको क्या पता कैसा सर मिटा दिया तुमने !
अब इन दरख़्तों को तुम ज़रूर सींचोगे,
ख़्वाब हमने देखा था पर मिटा दिया तुमने।
था वो इक भरम लेकिन दिल सकूँ तो पाता था,
किसलिए भला ऐसा डर मिटा दिया तुमने।
कल नहीं थे आँखों में आज हैं नए सपने,
फिर से हम बना लेंगे गर मिटा दिया तुमने।
दिल से ज़िंदगी भर का डर मिटा दिया तुमने।
उठके इस ज़मीं से वो आस्माँ से टकराता,
तुमको क्या पता कैसा सर मिटा दिया तुमने !
अब इन दरख़्तों को तुम ज़रूर सींचोगे,
ख़्वाब हमने देखा था पर मिटा दिया तुमने।
था वो इक भरम लेकिन दिल सकूँ तो पाता था,
किसलिए भला ऐसा डर मिटा दिया तुमने।
कल नहीं थे आँखों में आज हैं नए सपने,
फिर से हम बना लेंगे गर मिटा दिया तुमने।
8
उजड़ रहे हैं नगर यहाँ पर,
बनाए क्या कोई घर यहाँ पर ?
सभी की साँसे घुटी-घुटी हैं,
हवा में है वो जहर यहाँ पर।
हरेक शै में समा जाता है,
किसे नहीं आज डर यहाँ पर।
यहाँ से आगे गली है अन्धी,
ठहर गया है सफ़र यहाँ पर।
वो जिसका चेहरा खिला-खिला हो,
कोई तो आता नज़र यहाँ पर।
न जाने किस दिन खड़े हों तनकर,
झुके हुए हैं जो सर यहाँ पर।
सभी की ख़्वाहिश है काश आए,
कहीं से अच्छी ख़बर यहाँ पर।
बनाए क्या कोई घर यहाँ पर ?
सभी की साँसे घुटी-घुटी हैं,
हवा में है वो जहर यहाँ पर।
हरेक शै में समा जाता है,
किसे नहीं आज डर यहाँ पर।
यहाँ से आगे गली है अन्धी,
ठहर गया है सफ़र यहाँ पर।
वो जिसका चेहरा खिला-खिला हो,
कोई तो आता नज़र यहाँ पर।
न जाने किस दिन खड़े हों तनकर,
झुके हुए हैं जो सर यहाँ पर।
सभी की ख़्वाहिश है काश आए,
कहीं से अच्छी ख़बर यहाँ पर।
9
दम तोड़ने लगे हैं ये मंजर लहूलुहान,
जिंदा हैं फिर भी चंद कबूतर लहूलुहान।
पथराव इस तरह से हुआ था कि आज भी,
सहला रहे हैं, जख़्म सभी घर लहूलुहान।
रहबर की है तलाश मोड़ पर जिन्हें,
क्यों न हो उनके पाँव भटककर लहूलुहान ?
बारूद झर रहा है तिलिस्मी परों से वो,
इसकी वजह से आज है अंबर लहूलुहान।
चीख़ी है चोट खाके नदी ऐसे धूप से,
क्यों न हो जाय सुनके समंदर लहूलुहान।
जिंदा हैं फिर भी चंद कबूतर लहूलुहान।
पथराव इस तरह से हुआ था कि आज भी,
सहला रहे हैं, जख़्म सभी घर लहूलुहान।
रहबर की है तलाश मोड़ पर जिन्हें,
क्यों न हो उनके पाँव भटककर लहूलुहान ?
बारूद झर रहा है तिलिस्मी परों से वो,
इसकी वजह से आज है अंबर लहूलुहान।
चीख़ी है चोट खाके नदी ऐसे धूप से,
क्यों न हो जाय सुनके समंदर लहूलुहान।
10
कह दो, इसमें मानी क्या ?
प्रीति की रीति निभानी क्या ?
देखके तुमको जीती हूँ,
है मेरी नादानी क्या ?
कई दिनों से ग़ायब हो,
ऐसी भी मनमानी क्या ?
हम भी राह न देखेंगे,
आँखें रोज़ बिछानी क्या ?
कुछ तो हमसे बात करो,
उसमें नई-पुरानी क्या ?
बुझी-बुझी मैं रहती हूँ,
है इसमें हैरानी क्या ?
प्यार में दोनों एक हुए,
क्या मुश्किल, आसानी क्या ?
प्रीति की रीति निभानी क्या ?
देखके तुमको जीती हूँ,
है मेरी नादानी क्या ?
कई दिनों से ग़ायब हो,
ऐसी भी मनमानी क्या ?
हम भी राह न देखेंगे,
आँखें रोज़ बिछानी क्या ?
कुछ तो हमसे बात करो,
उसमें नई-पुरानी क्या ?
बुझी-बुझी मैं रहती हूँ,
है इसमें हैरानी क्या ?
प्यार में दोनों एक हुए,
क्या मुश्किल, आसानी क्या ?
11
धूप भीतर भी बहुत तेज़ थी बाहर की तरह,
घर हमारा न लगा हमको कभी घर की तरह।
जिसके आँगन में बहुत फूल दिखे थे हमको,
उसके सीने में कोई चीज़ थी पत्थर की तरह।
हमने ये जान लिया फिर से भटकना होगा,
हमसफ़र मिलने लगे जैसे ही रहबर की तरह।
उसके हँसने पे खिले फूल हज़ारों कैसे,
इस ज़माने में भटकता है जो बेघर की तरह।
बेरुखी से न हरिक ख़्वाब उठाकर फेंको,
हो न हो उनमें कोई चीज़ हो गौहर की तरह।
उनकी आँखों में कभी झाँक के देखा तुमने ?
आग भीतर जो रखे चुप है समंदर की तरह।
वो इशारा भी करेगा तो क़यामत होगी,
ज़ह्र जो रोक सके कंठ में शंकर की तरह।
घर हमारा न लगा हमको कभी घर की तरह।
जिसके आँगन में बहुत फूल दिखे थे हमको,
उसके सीने में कोई चीज़ थी पत्थर की तरह।
हमने ये जान लिया फिर से भटकना होगा,
हमसफ़र मिलने लगे जैसे ही रहबर की तरह।
उसके हँसने पे खिले फूल हज़ारों कैसे,
इस ज़माने में भटकता है जो बेघर की तरह।
बेरुखी से न हरिक ख़्वाब उठाकर फेंको,
हो न हो उनमें कोई चीज़ हो गौहर की तरह।
उनकी आँखों में कभी झाँक के देखा तुमने ?
आग भीतर जो रखे चुप है समंदर की तरह।
वो इशारा भी करेगा तो क़यामत होगी,
ज़ह्र जो रोक सके कंठ में शंकर की तरह।
12
भरके ऊँची उड़ान गौरैया,
देख आई जहान गौरेया।
हमने देखा नहीं कि डरती हो,
देखकर आस्मान गौरैया।
अपनी बोली से दिल पे करती है,
मीठे-मीठे निशान गौरैया।
कल नशेमन कोई उजाड़ गया,
क्या करे बेजुबान गौरैया।
अपने बच्चों को ढँकके पंखों में,
बन गई पासबान गौरैया।
उसकी आँखों को पढ़के देख ज़रा,
दे रही है बयान गौरैया।
मर्तबा है मेरा, बनाए जो,
मेरे घर में मकान गौरैया।
देख आई जहान गौरेया।
हमने देखा नहीं कि डरती हो,
देखकर आस्मान गौरैया।
अपनी बोली से दिल पे करती है,
मीठे-मीठे निशान गौरैया।
कल नशेमन कोई उजाड़ गया,
क्या करे बेजुबान गौरैया।
अपने बच्चों को ढँकके पंखों में,
बन गई पासबान गौरैया।
उसकी आँखों को पढ़के देख ज़रा,
दे रही है बयान गौरैया।
मर्तबा है मेरा, बनाए जो,
मेरे घर में मकान गौरैया।
13
जम गया है दिल में जो पत्थर मिटेगा,
आदमी से जब मिलोगे डर मिटेगा।
जिसमें हर मासूम सपना मिट रहा है,
जाने कब यह दर्द का मंज़र मिटेगा ?
ज़लज़ले तूफ़ान या सैलाब आएँ,
बेघरों का ख़ाक कोई घर मिटेगा !
तब कहीं जाकर नई तामीर होगी,
नींव से कुहना अगर खंडहर मिटेगा।
रंग, ख़ुशबू, फूल, पत्ते क्यों न देगा ?
बीज मिट्टी में अगर दबकर मिटेगा।
तेज़ होगी धूप तो बादल बनेगा,
कौन कहता है कभी सागर मिटेगा ?
आदमी से जब मिलोगे डर मिटेगा।
जिसमें हर मासूम सपना मिट रहा है,
जाने कब यह दर्द का मंज़र मिटेगा ?
ज़लज़ले तूफ़ान या सैलाब आएँ,
बेघरों का ख़ाक कोई घर मिटेगा !
तब कहीं जाकर नई तामीर होगी,
नींव से कुहना अगर खंडहर मिटेगा।
रंग, ख़ुशबू, फूल, पत्ते क्यों न देगा ?
बीज मिट्टी में अगर दबकर मिटेगा।
तेज़ होगी धूप तो बादल बनेगा,
कौन कहता है कभी सागर मिटेगा ?
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लोगों की राय
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